किसी भी समाज की गुलामी का एक मात्र कारण है शिक्षा की कमी” – ज्योतिराव फुले
‘जयंती पर IPS रतन लाल डांगी द्वारा लिखा गया आलेख ‘

बिलासपुर- ज्योतिराव गोविंदराव फुले 19 वीं सदी के एक महान समाज सुधारक, समाज प्रबोधक, विचारक, समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे। इन्हें महात्मा फुले एवं ” ज्योतितिबा फुले के नाम से भी जाना जाता है। इन्होंने अपना पूरा जीवन स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार दिलाने, बाल विवाह को बंद कराने में लगा दिया। फुले समाज की कुप्रथा, अंधश्रद्धा की जाल से समाज को मुक्त करना चाहते थे। व्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता के लिए उनके चलाए आंदोलन के कारण उन्हें आधुनिक भारत की परिकल्पना का पहला रचनाकार भी माना जाता है । उनका असली नाम ज्योतिराव गोविंदराव फुले था । ज्योतिबा फुले भारतीय समाज में प्रचलित जाति आधारित विभाजन और भेदभाव के खिलाफ थे ।
वर्ष 1848 में एक बार उन्हें एक मित्र की शादी में बारात में शामिल हुए थे जहां उच्च वर्ग के कुछ लोगों ने उसके शूद्र होकर भी उनके साथ बारात में चलने पर अपमानित किया । 21 वर्षीय ज्योतिबा पर इस घटना का गंभीर प्रभाव पड़ । उसी समय उन्होंने सामाजिक असमानता को जड़ से उखाड़ फेंकने की कसम खाई की। उनके जीवन में एक ऐसी घटना ने उनके मन की जागरूकता को लक्ष्य में बदल दिया ।
उन्होंने थॉमस पायने की किताब राइट्स ऑफ़ मैन पढ़ी । इसलिए, उन्हें यह एहसास होने लगा कि मनुष्यों के कुछ बुनियादी अधिकार हैं और उन्हें प्राप्त करना उनका अधिकार है। किसी भी व्यक्ति को सामाजिक समानता, राजनीतिक भागीदारी, धार्मिक-आर्थिक स्वतंत्रता और पढ़ने-लिखने से वंचित करना और उनका शारीरिक एवं मानसिक रुप से धर्म के आधार पर शोषण करना या शोषण को धर्म मानना क्रूरता और निर्दयता है।”
उन्हें आश्चर्य हुआ कि उनके साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार क्यों किया जा रहा है ? उन्होंने इस पर विचार किया और अपनी पृष्ठभूमि और संसाधनों के बारे में सोचा तो एक बात उनके ध्यान में आयी कि शिक्षा की कमी के चलते यह अंतर है। वे इस नतीजे तक पहुंच गए कि समुदायों में शिक्षा की कमी ने सैकड़ों वर्षों की गुलामी को जन्म दिया है शिक्षा केवल एक वर्ग तक सीमित है। इसलिए उन्होंने सोचा कि यदि हम सबके लिए शिक्षा के द्वार खोल दें तो गुलामी के बंधनों को हटाया जा सकता है और उन्होंने समाज के शोषित वर्ग के लिए काम करने का फ़ैसला किया । उन्होंने महिलाओं में शिक्षा का अलख जगाने का फ़ैसला लिया महात्मा फुले ने महिलाओं को शिक्षित करने का कार्य क्यों किया, इस बारे में उन्होंने जो कहा, उसका विवरण कुछ इस तरह है, वे कहते हैं – “सबसे पहले महिला स्कूल ने मेरा ध्यान खींचा । मेरे ख़्याल से महिलाओं के लिए स्कूल पुरुषों से ज़्यादा अहम थे। “
शिक्षा के साथ-साथ फुले दंपति ने विधवा के लिए आश्रम, विधवा पुनर्विवाह, नवजात शिशुओं के लिए आश्रम, कन्या शिशु हत्या के खिलाफ भी आवाज बुलंद किया।
उन्होंने विधवाओं और महिलाओं के कल्याण के लिए काफी काम किया। महात्मा ज्योतिबा फुले की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे जो कहते थे, उसे अपने आचरण और व्यवहार में उतारकर दिखाते थे। इस दिशा में अग्रसर उनका पहला कदम था- अपनी पत्नी सावित्री बाई को शिक्षित करके इस काम के लिए इस योग्य बनाया। अपने जीवन काल में उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं-गुलामगिरी, तृतीय रत्न, छत्रपति शिवाजी, राजा भोसला का पखड़ा, किसान का कोड़ा, अछूतों की कैफियत. महात्मा ज्योतिबा व उनके संगठन के संघर्ष के कारण सरकार ने ‘एग्रीकल्चर एक्ट’ पास किया।
योगदान – ज्योतिबा ने पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरम्भ कराया और इसे मुंबई उच्च न्यायालय से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे। सावित्रीबाई फुले ने अपने पति ज्योतिबा फुले के सहयोग से पुणे में बालिकाओं के लिए पहला बालिका विद्याल खोला । 1 जनवरी 1848 में. लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी । उनके पहले स्कूल में लड़कियों को पढ़ाने के लिए जब कोई योग्य अध्यापिका नहीं मिलीं तो इस काम के लिए उन्होंने अपनी सावित्री फुले को इस योग्य बनाया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की कोशिश की लेकिन जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया। इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका जरूर लेकिन शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए। यह वह दौर भी था जब महज 12-13 वर्ष की उम्र में लड़कियों की शादी उम्रदराज पुरुषों से कर दी जाती थी, इसलिए कई किशोरावस्था में ही विधवा हो जाती थीं। फुले ने बाल विवाह का विरोध किया और विधवा के पुनर्विवाह की पुरजोर वकालत की, जो उस समय बहुसंख्यक जातियों में सामान्य बात नहीं थी।
सत्यशोधक समाज 24 सितम्बर सन् 1873 में ज्योतिबा फुले द्वारा स्थापित एक पन्थ है। समाज सुधारक ने सत्यशोधक समाज नाम से एक सुधार समाज की स्थापना की थी जिसका उद्देश्य शूद्रों और “अछूतों” को एकजुट करने और उनका उत्थान करने के साथ-साथ सामाजिक समानता को बढ़ावा देना था। उनकी समाजसेवा देखकर 1888 ई. में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी गई।
इनके विचार “गुलामगिरी, सार्वजनिक सत्यधर्म ” में निहित है । 1873 में लिखी गई इस किताब का उद्देश्य दलितों और अस्पृश्यों को तार्किक तरीके से वर्ग विशेष की उच्चता के झूठे दंभ से परिचित कराना था । इस किताब के माध्यम से ज्योतिबा फूले ने दलितों को हीनता बोध से बाहर निकलकर, आत्मसम्मान से जीने के लिए भी प्रेरित किया था । उनसे प्रेरणा मिलती है सामाजिक कार्यों में भेद-भाव न करने की, स्वार्थ सिद्धि के स्थान पर सेवा भावना को प्रमुखता देने की, साधारण मनुष्य से भगवान बन जाने की।
शिक्षा के महत्व को पहचानने वाले फुले के अनुसार –
विद्या बिना मति गयी, मति बिना नीति गयी
नीति बिना गति गयी, गति बिना वित्त गया
वित्त बिना शूद्र गये! इतने अनर्थ एक अविद्या ने किये”
महात्मा फुले ने जीवन में शिक्षा के अभाव से पड़ने वाले प्रभाव को रेखांकित करते हुए ये पंक्तियां ‘किसानों का कोडा’ नामक किताब में लिखी हैं।
महात्मा फुले ने समय रहते शिक्षा के महत्व को पहचाना। उन्होंने महसूस किया कि बहुजन समाज की गुलामी का एक मात्र कारण शिक्षा की कमी ही है । इस आधार पर उन्होंने सुझाव दिया है कि ज्ञान की कमी के चलते बहुजन समाज को दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का जीवन भर सामना करना पड़ता है। उन्होंने निदान बताते हुए कहा है कि इस दुर्भाग्य की जड़ अज्ञानता है।
महात्मा फुले के किसान संबंधी विचार – महात्मा फुले ने 1883 में ‘किसानों का कोठा’ नामक पुस्तक लिखी थी जिसमे उन्होंने बताया कि किसानों की दुर्दशा के लिए नौकरशाही, साहूकारों, बाज़ार व्यवस्था, जाति व्यवस्था, प्राकृतिक आपदाओं को जिम्मेदार ठहराया है । महात्मा फुले ने किसानों को लेकर जो समस्याएं उठाई हैं, वे आज भी कुछ हद तक मौजूद हैं। महात्मा फुले ने कहा कि हर किसान को पानी का सही हिस्सा देना चाहिए । साहूकारी, सरकारी विभाग में भ्रष्टाचार और किसानों का उत्पीड़न तब भी हुआ और अब भी होता है. महात्मा फुले ने कहा था कि किसानों के बच्चों को व्यावसायिक शिक्षा पर जोर दे रहे थे । वो कहते थे कि किसानों के बच्चों को अपने कोशल का विकास करना चाहिए और अपने अधिकारों का प्रयोग करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था कि किसान के बच्चे विलायत भी जाएं और वहां से काम सीखें । फुले दंपति ने देश में कुल 18 स्कूल खोले थे। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने उनके योगदान को सम्मानित भी किया । उनका कहना था की अच्छा काम पूरा करने के लिए बुरे उपाय से काम नहीं लेना चाहिये। शिक्षा स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समान रूप से आवश्यक है। परमेश्वर एक है और सभी मानव उसकी संतान हैं।
पृथ्वी पर उपस्थित सभी प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठ है, और सभी मनुष्यों में नारी श्रेष्ठ है, स्त्री और पुरुष जन्म से ही स्वतंत्र है, इसलिए दोनों को सभी अधिकार समान रूप से भोगने का अवसर प्रदान होना चाहिए।